'माँ' एक सशक्त स्त्री

'माँ' एक सशक्त स्त्री
बारात जा चुकी थी। ढोल और शहनाइयों से गूंजता घर सुनसान हो चुका था। मेहमान भी विदा ले चुके थे। सामान अस्तव्यस्त पड़ा था। अब घर में सिर्फ दो लोग रह गए थे, संध्याजी और उनकी छोटी बेटी आभा। शादी की थकान से चूर संध्याजी और आभा दोपहर में गहरी नींद सोई हुई थी। चार बजे के आसपास डोर बेल बजी। संध्या जी चश्मा चढ़ाए दरवाजे पर गई। इवेंट मैनेजर दरवाजे पर खड़ा था। संध्या जी समझ गई कि जरूर बाकी का पेमेंट लेने आया होगा। दरवाजा खोल उसे अंदर बैठाया और आभा को आवाज लगाई। "आभाsss बेटा,आओ जरा।" मां की आवाज सुनकर आई आभा ने ड्रॉइंगरूम में बैठ, सारे हिसाब चेक करने के बाद मैनेजर को बाकी के 50000 रुपए देकर विदा किया। संध्या जी अपनी छोटी बेटी आभा को एकटक देख रही थी जो कि अब एक बड़ी कम्पनी में चार्टेड अकाउंटेंट थी। कल को मेरी गोद में खेलती आभा, आज कितनी बडी हो गई है। "मां मै थोड़ी देर और सोने जा रही हूं। तुम भी आराम कर लो।" आभा की आवाज सुन संध्या जी चौंक गई। थकी हारी आभा फिर बिस्तर में जा, नींद के आगोश में पहुंच गई। संध्याजी वहीं सोफे पर ही लेट गई। परसों ही बड़ी बेटी निशा की विदाई हुई है। लड़का सरकारी कॉलेज में प्रोफेसर है। बेटी निशा भी उसी कॉलेज में प्रोफेसर है। दोनों की लव मैरिज हुई है। लोग कहते हैं समय निकलते पता नहीं चलता किंतु संध्या जी को समय का बितना पूरी तरह से याद है, हर वो दिन उन्हें याद है ,जब उन्होंने जिंदगी के कठिन रास्तों को अकेले ही पार किया था। चलचित्र के समान बिता हुआ कल सन्ध्या जी की आंखों में उमड़ आया। ************** "बेटा आज से ये घर तेरे लिए पराया है। वही घर अब तेरा अपना है। जैसा भी रहे, जीवन तुझे वही बिताना होगा।" यह कहकर मां बाप ने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया था। 30 वर्षों पहले संध्या दुल्हन बनकर बड़े ही अरमानों के साथ विदा होकर आई थीं। पति शहर में किसी प्राइवेट फर्म में ड्राइवर थे। ड्राइवर की जिंदगी को कब ब्रेक लग जाए कौन जानता है। चार वर्ष के दाम्पत्य जीवन का अंत आया और रमेशजी की जिंदगी को भी ऐसे ही एक मनहूस दिन ने ब्रेक लगा दिया था। दुर्घटना में रमेशजी चल बसे और पीछे छोड़ गए दो बेटियों और 22 साल की पत्नी, संध्या को। बारहवां ही हुआ था और ससुराल वालों ने मनहूस कहकर नाता तोड लिया। दूसरों के भरोसे जीती और अपमान का घूंट पीती सन्ध्या कुछ ही दिन वहां रही। पीहर भी नहीं गई और चल पड़ी बिना कुछ सोचे समझे दोनों बेटियों को लेकर अनजान राह पर ,जिसका न कोई अंत नजर आता था नहीं कोई मंजिल। गांव से निकल शहर में पहुंची और जो थोड़ी बहुत बचत और गहने थे उनसे इंतजाम कर एक रूम किराए पर ले लिया और राशन पानी का इंतजाम किया। शुरू में मोहल्ले के आसपास के घरों में घरकाम करके गुजारा चलाया। "हमारी हो जाओ सन्ध्या, जिंदगी स्वर्ग बना देंगे।" "अकेले इस दुनिया का सामना नही कर पाओगी। हमे अपना बना लो।" ये वो वाक्य थे जो सन्ध्या ने न जाने कितनी बार सुने थे। अकेली संध्या को कभी कभी यह महसूस होता था कि जैसे वह घने जंगल में अपने दो निरीह शावकों को साथ लिए, एक हिरनी सी खड़ी है और चारों तरफ भूखे भेड़िए मुंह खोले उसकी तरफ बढ़ रहे है। दिल करता था कि बेटियों को लेकर किसी नदी कुएं में छलांग लगा दे, किन्तु जब उन मासूम चेहरों को देखती तो अपनी ही सोच पर प्रायश्चित कर बैठती। बीतते समय के साथ छुईमुई सी संध्या एक मजबूत स्त्री की पहचान बना रही थी। व्यवहार में विनम्र संध्या को एक निजी अस्पताल में साफ सफाई करने की नौकरी मिल गई। जिंदगी में शिक्षा की क्या कीमत होती है, यह संध्या को भलीभांति समझ आ गया था। माता पिता ने कर्मठ तो बना दिया था किन्तु शिक्षा से वंचित रखा था। उसी दिन उसने निर्णय कर लिया था कि मेरे बीते कल ने मुझे आज यह दिन दिखाया है, किन्तु मेरी बेटियों का आने वाला कल मै ऐसा नहीं होने दूंगी। बस तब से मजबूत इरादे के साथ आगे बढ़ती संध्या ने अपनी दोनों बेटियों को सरकारी शाला में भर्ती करवा दिया। संध्याजी सदैव बेटियों को यही शिक्षा देती कि, जिंदगी कांटों की डगर है, इसे फूल बनाना तुम्हारे हाथ में है।" पूत के पांव पालने में ही नजर आने लगते हैं, मेहनती मां की बेटियां भी मेहनती थीं। समय बीतता रहा और बेटियां एक एक कर शिक्षा के सोपान चढ़ती रही। मेहनत का गुण तो जैसे विरासत में मिला था दोनो बेटियों को। इमानदारी से की मेहनत कभी खाली नही जाती। यही हुआ एक दिन। "माँ, अगले महीने से तूम नोकरी पर नही जाओगी। मुझे अच्छा जॉब मिल गया है। " बड़ी बेटी निशा ने एम. एस. सी. उत्तीर्ण होने के साथ ही खुशखबरी देते हुए कहा। 'हाँ माँ.. दीदी सही कह रही हैं। अब जिम्मेदारी हम पर छोड़ दो। कितना समझाया संध्या ने बेटियों को, पर दोनों के सामने एक न चली और जॉब छोड़नी ही पड़ी। पिछले 5 वर्षों में जैसे जीवन ही बदल गया था। एक बेटी सी.ए. हो गई और दूसरी प्रोफेसर। दोनो बेटियों ने माँ को एक नौकरानी से 'रानी' होने का अहसास कराया था। ईश्वर की कृपा से चार दीवारों का मकान अब भरा पूरा लगता था। खुद का दो कमरे रसोई का घर भी किसी महल सा महसूस होता था। लोग संध्याजी की बेटियों की मिसाल देते थे। " माँ.. माँ..!! चाय ले लो माँ। " आभा की आवाज सुन संध्याजी बिते कल से निकलकर आज में आ गई। घड़ी की पांच टन टन सुन सन्ध्याजी को अहसास हुआ कि सोफे पर लेटे लेटे उन्हें एक घंटा हो गया। और इस एक घंटे में , बीते कल के वो कड़वे 30 वर्ष जीवन्त हो गए थे। चाय का कप हाथ में लेकर संध्याजी अपने आज में आकर फिर खुश थी और सोच रही थी आने वाला कल इससे भी बेहतर होगा। वक्त ने उन्हें अनुभव दिए किन्तु मातृत्व ने उन्हें सशक्त बना दिया था।

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